DR. MANDHATA RAI

DR. MANDHATA RAI
DLIT. HINDI

परिचय

My photo
गाजीपुर, उत्तर प्रदेश, India

Thursday, October 4, 2012

राही मासूम रजा कृतित्व एवं मूल्यांकन





लेखक : डॉ. मान्धाता राय डॉ. हितेंद्र कुमार मिश्रा
प्रकाशक: विजय प्रकाशन मंदिर, वाराणसी संस्करण : 2011


इस किताब में संपादक- डॉ. मान्धाता राय और डॉ. हितेंद्र ठाकुर मिश्र ने डॉ. राही मासूम रजा के बेजोड़ कृतित्व और अमूल्य मूल्यांकन से परिचित कराया है. जरिया बनाया है डॉ. राही के आत्मकथ्य और तकरीबन तीन दर्जन लेखकों  की कलम को, जिन्होंने राही को वो कलमकार निरुपित किया है, हिंदू-मुस्लिम दोनों को हिंदुस्तानी बनने की प्रेरणा देते हैं और जिनकी भाषा भी हिंदी उर्दू न होकर हिंदुस्तानी है. अपनी प्रसिद्ध कृति "आधा गांव' के बारे में वह कहते हैं- "यह उपन्यास लिखने के बाद सबसे अहम बात मैंने यह जानी कि यहां का मुसलमान कराची गया, लाहौर गया, ढाका गया, मगर पाकिस्तान नहीं गया, हमें शहर और देश में फर्क करना चाहिए..' किताब के 45 लेखों में से एक के अनुसार राही की 251 सफह वाली नज्म 1857, जो गदर पर लिखी सबसे लंबी नज्म है, डॉ. इकबाल, जोश मलीहाबादी, अली सरदार जाफरी वगैरह का समकक्ष शायर बनाती है, मगर उसे नजर अंदाज कर दिया गया है.
"महाभारत' की स्क्रिप्ट लिखकर और भी अमर हो जाने वाले राही की अमर कृति (नज्म 1857) की चार लाइने पेश हैं- "कोई हवा से ये कह दे, वो ये चिराग बुझाये; कि उस सड़क पर अंधेरा ही था तो अच्छा था. हर एख दरख्त में फंदा, हर एख शाख पे लाश; मैं उस सड़कें पे अकेला ही था तो अच्छा था...'
सही मूलत: शायर थे. उनकी कथनी और करनी में, जीवन और लेखन में फर्क नहीं था. उनके चाचा वजीर हसन आब्दी से यह फन उन्हें विरासत में मिला. सन 1927 को गाजीपुर के गंगौली गांव में जन्म और सन 1992 में जहां को अलविदा कहने वाले राही ने आधा गांव, टोपी शुकला कटरा बी आरजू वगैरह आठ प्रसिद्ध उपन्यास लिखे. राही ने आधा गांव (विभाजन पर आधारित) में सेक्यूलर सोच की पैरवी थी, तो टोपी शुक्ला (धार्मिक वैमनस्यता पर) में विश्वविद्यालयों में जारी राजनीति  को फोकस किया, तो कटरा बी आरजू (आपातकाल पर) में भयावहता का चित्रण पूरी मानवीय संवेदना के साथ किया.
इस किताब से ही पता चलता है कि 300 फिल्मों की यह क्या और संवाद लिखने वाले राही शुरूआत में इलाहाबाद से प्रकाशित होने वाली पत्रिकायें-जासूसी दुनिया, रूमानी दुनिया वगैरह में छद्म नामों से भी लिखते थे.
किताब के दीगर लेखों के अनुसार राही प्रेमचंद की तरह अजीम उपन्यासकार थे, जिन्होंने इंकलाब की आवाज को और ज्यादा कुव्वत से बुलंद किया. अपनी साफगोई व बेबाक  टिप्पणी करने की आदत ने उन्हें आंखें भी किरकिरी भी बनाया.
राही के "आधा गांव' में बे शुमार गालियां है, जबकि "टोपी शुकला' में एक भी गाली नहीं है. बकौल राही "टोपी' में एक भी गाली न हो, पर महसूस उपन्यास एक गंदी गाली हैं, जो में डंके की चोंट बक रहा हूं यह उपन्यास जीवन की तरह अश्लील है.
किताब के एक और लेखक अनुसार राही के उपन्यास दिल एक सादा कागज है मैं बड़े पैमाने पर देह विमर्श के दर्शन होते हैं. फिल्म की तरह कई हॉट सीन सामने नमूदार होते हैं. बेशक यह भी राही के कलम का कमाल है.
दादी नानी की लोकथाओं वाली "तिलस्मे होशरूबा' पर डॉक्ट्रेट हासिल करने वाले डॉ. राही को एक बेवा के साथ प्रेम विवाह करने चरित्रहीन कह अलीगढ़ मुस्लिम युनिवर्सिटी से निकाल दिया गया था, जहां वो उर्दू विभाग में प्राध्यापक थे. लिहाजा राही दिल्ली आये, मगर आखिरकार उन्हें फिल्मलेखन के लिए मुंबई आना पड़ा. "महाभारत' के प्रदर्शन के बाद उनकी अभूतपूर्व प्रसिद्धि के चलते अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी को भी उन्हें सम्मानित करना पड़ा.
राही ने लाख फिल्मों के जरिए खूब कमाया, पर उनकी फिक्र और सोच साहित्यकारों के लिए सदा रही. उन्होंने गंगा में लिखा है- "एक राज की बात सुनिये, भारत में साहित्यकार मरने के बाद पुजाता है, पर जिंदगी में साहित्य दो जून की से ही, घर का किराया, बिजली, धोबी और डॉक्टर काबिल वगैरह नहीं दे सकता, इसलिए यहां उसे कोई और काम करना पड़ता है. फिल्मों के लिए काम करने वाले राही ने फिल्म मीडिया पर भी दो टूक लिथा है-"हिंदुस्तान एक जाहिल मुल्क है और जाहिलों के लिए फिल्म से ज्यादा पॉवरफुल कोई माध्यम हो ही नहीं सकता.
"मैं मंगलवार को मीट नहीं खाता' या "इस्लाम खतरे में है' जैसी बातों वालों से नफरत करने और देशकाल समाज की विसंगतियों विकृतियों को उजागर करने वाले सही का कृतित्व राष्ट्रीयता से ओत-प्रोत है. वह लिखते हैं.
"कैसी विडम्बना है कि हिंदुस्तान एक राष्ट्र है और उसी में महान राष्ट्र और सौ+ राष्ट्र हैं और और भी अलग-अलग प्रदेश (पर+देश) यानी दूसरे देश है. मुंबई बाल ठाकरे भी है तो श्री नगर फारूक अब्दुल्लाह  का... मुझे सारे जहां से अच्छा जो हिंदुस्तान है, उसका कोई पोस्टल एड्रेस नहीं बताता. उन्होंने यह भी लिखा-"धार्मिक कट्टरता जो स्वतंत्रता के रास्ते का रोड़ा थी, जैसे आज प्रगति के रास्ते का रोड़ा है... वह कहीं बाल ठाकरे को नेता बना देती हैं, कहीं मौलाना बुखारी को. इनके हाथों से धर्म छीन लाये तो इन फुकनों की हवा निकाल जाएगी' (बकलम खुद अभिनव कदम. 12) राही के अनुसार (हिंदुस्तान का हर नागरिक हिंदू है, चाहे वह सिख हो, ईसाई हो या मुसलमान. कौमें देशों से बनती हैं धर्मों से नहीं वह इस्लाम की व्याख्या यूं करते हैं- "इस्लाम नाम है शांति का, गुलामों की आजादी का सच बोलने का, बदन और आत्मा साफ रखने का, पड़ोसियों के हक महफूज रखने का.. इस्लाम किसी बादशाह की बनवाई मस्जिद में अजान देने का नाम नहीं है.'
उर्दू में हिंदी में आये राही लिखते हैं- "भाषा का वह रूप जिसे उर्दू कहते हैं, मेरा ओढ़ना-बिछौना नहीं है, बल्कि मेरे अस्तित्व का एक अंग है. उसके बिना मैं अधूरा रह जाऊंगा. मैं हिंदी लिख पढ़ लेता हूं, लेकिन मैं हिंदी में ख्वाब नहीं देख सकता.
भारत की धर्मनिरपेक्ष छवि के अपनी कृति में पूरी संजीदगी से उकेरने वाले राही कबीर, रसखान गालिब और प्रेमचंद्र की परम्परा की आगे बढ़ाकर गये हैं, जिसे नयी थी दी कि साहित्यकार प्रेरणा पाकर देश को एकता के सूत्र में बांधकर तरक्की की राह पर चलने को प्रेरित कर सकते हैं. हिंदुस्तानियत और औ़र इंसानियत के मासूम राही का यही पैगाम है. उनका संपूर्ण जीवन और साहित्य भारतीय धर्म निरपेक्षता के समर्पित है.
और यह किताब भी, जो राही मासूम रजा कृतित्व और मूल्यांकन को प्रस्तुत करने के कूजे में समन्दर समोने जैसी है.  कुल जमा राही, उनके उनके कृतित्व और मूल्य से पूरी तरह तआरूफ कराता है यह मूल्यांकन.
   

 नून जाफरी

Tuesday, June 15, 2010

उपलब्धता

पाठकों को सूचित कर दें कि डॉ मान्धाता राय  जी की सारी पुस्तकें इस समय राष्ट्रीय संग्रहालय कोलकाता में उपलब्ध हैं । 

भोजपुरी के प्रथम ललित निबंधकार एवं आलोचक विवेकी राय ग्राम जीवन और लोक संस्कृति के प्रति समर्पित एक ऐसे कथाकार हैं जिनका कृतित्व वैविध्यपूर्ण एवं बहुआयामी है। वे स्वयं अपने आपको ‘किसान साहित्यकार’ कहते हैं। वे अपनी ज़मीन से इस तरह जुड़े हुए हैं कि उनकी रचनाओं में मिट्टी का सोंधापन पाठकों के मन-मस्तिष्क को सहज ही आप्लावित करता है। विवेकी राय के साहित्य में
स्वातंत्र्योत्तर भारतीय गाँवों का सच्चा चित्र उपस्थित है। अपने अंचल के बीच पल्लवित होने के कारण वहाँ के संबंधों, समस्याओं, मूल्य संक्रमण, लोक गीतों, लोक मान्यताओं, संस्कारों व लोक-व्यापारों आदि की प्रामाणिक छवि उनके साहित्य में सहज ही उभरती है। आंचलिक उपन्यासकारों में फणीश्वरनाथ रेणु के पश्चात् विवेकी राय का नाम लिया जा सकता है। उन्होंने हिंदी शब्द भंडार को उनके नए
शब्दों से समृद्ध किया है।



विवेकी राय की पहचान वस्तुतः एक कथाकार के रूप में स्थापित हुई है, किंतु उनके साहित्यिक जीवन का आरंभ कविता से हुआ। उनकी कविताओं में एक ओर प्रकृति है तो दूसरी ओर दर्शन, श्ाृंगार, रहस्य और राष्ट्रीय बोध। वे सिर्फ कवि या कहानीकार ही नहीं अपितु उपन्यासकार, निबंधकार, व्यंग्यकार, समीक्षक, आलोचक आदि अनेकानेक रूपों में हमारे समक्ष प्रकट होते हैं। उनके साहित्य के रसास्वादन के
लिए पाठक में भी एक विशेष प्रकार के संस्कार की आवश्यकता है और वह है ग्रामीण जीवन, ग्रामीण प्रकृति और ग्रामीण संस्कारों को समझने की प्रवृत्ति। स्वतंत्रता के बाद ग्रामीण जनता की दयनीय दशा, लोक जीवन की सांस्कृतिक बनावट, ग्रामीण मानसिकता में व्याप्त रुग्णता, शोषण की नई शक्तियाँ, विघटित होते प्रजातांत्रिक मूल्य, हताशा, निराशा, मोहभंग आदि को उन्होंने अपने साहित्य के माध्यम
से उकेरा है। सांस्कृतिक मूल्यों से ‘कट आफ’ होकर आधुनिकता के रंग में रंगे जा रहे ग्राम-जीवन की त्रासदी उनके साहित्य में दिखाई पड़ती है। उनके साहित्य को पाठकों और आलोचकों ने खूब सराहा है तथा अलग-अलग दृष्टिकोणों से उस पर अनुसंधान कार्य भी हुए हैं। डॉ. मान्धाता राय (1946) द्वारा संपादित पुस्तक ‘विवेकी राय और उनका सृजन-संसार’ (2007), उनके साहित्य की व्यापक स्वीकृति का सुष्ठु
प्रमाण है।



शीर्षस्थ कथाकार विवेकी राय के व्यक्तित्व और कृतित्व पर कंेद्रित इस पुस्तक में कुल 28 आलेख संकलित हैं। जिनमें उनके साहित्य के विविध आयामों को विवेचित किया गया है। संपादक ने ‘प्राकरणिकी’ में यह स्पष्ट किया है कि ‘‘विवेकी राय ने जिन राजनीतिक, सामाजिक और आर्थिक विसंगतियों को प्रस्तुत किया है, उनमें मेहनतकश वर्ग का अमानवीय शोषण एवं उत्पीड़न, गाँव की आपसी फूट के चलते
आत्मीयता और भाईचारा की समाप्ति, गाँव के सहज-सरल जीवन में कुटिल राजनीति का प्रवेश और उसकी खलनायिका सदृश भूमिका, दहेज, अस्पृश्यता आदि रूढ़ियों का दबाव मुख्य है। डॉ. राय की सहानुभूति अन्याय के पिसते वर्ग के साथ है। उन्होंने आर्थिक-सामाजिक शोषण के प्रति सुगबुगाते विद्रोह को रेखांकित करते समय अत्याचारों के प्रति अपनी नाराजगी और वितृष्णा को जरा भी छिपाया नहीं है। विवेकी
राय का रचना संसार बहुत ही फैलाव वाला है और वर्तमान जागतिक जीवन के बहुआयामी चिंताओं से समृद्ध है। हिंदी और भोजपुरी दोनों में उन्होंने एक नाटक विधा को छोड़ सारी विधाओं को अधिकारिक रूप से उठाया है तथा अपनी छाप छोड़ी है। इस विवेचन के परिपे्रक्ष्य में प्रस्तुत है यह कृति ‘विवेकी राय और उनका रचना संसार’।’’



डॉ. आनंद कुमार सिंह ने अपने आलेख में कहा है कि विवेकी राय का सारा साहित्य ‘‘अपने प्रियजन को संबोधित एक चिट्ठी की नाईं है जिसकी सारी राम कहानी अंतरात्मा का अछोर आह्लाद और सीमाहीन विप्लव है। किसी जाड़ोंवाली धंुधलाती रात का एकांत और खिड़की के बाहर कुहरीली लहर या फिर धू-धू जलती भू की लू बरसाती दुपहरी और निराला के शब्दों की ‘गर्द चिनगी’ वाली गर्मियाँ या धारासार मँडराकर
बरसनेवाली बरसात और डरावनी हवाएँ - किसी भुतहे बरगद-पीपल के नीचे से जानेवाली पगडंडी और ‘फिर बैतलवा डाल पर’ वाला डर। ‘गँवई-गंध-गुलाब’ का बेमेल-पन, पर, चुनरी रँगाने का बासंती आग्रह। गाँव का ग्राम्य विग्रह और उसके अर्धविकास का दारुण बोध विवेकी राय को साहित्यकार बना देता है।’’ (पृ.सं. 1)
डॉ. विवेकी राय ने विविध विधाओं में लेखन किया है। उनके इस लेखन के पीछे उनका गहन अध्ययन और जीवनानुभव विद्यमान है। अध्ययन की गहनता का ही यह परिणाम है कि आलोचनात्क लेखन में भी वे औरों से अलग दिखाई देते हैं। उदाहरण के लिए, उन्होंने ‘कल्पना’ के आरंभिक अंकों के महत्व को जिस प्रकार अंका है, उसके संबंध में डॉ. राजमल बोरा लिखते हैं कि उन अंकों के विषयों पर डॉ. विवेकी राय ने संकेत
किया है। यह कार्य इतना महत्वपूर्ण है कि इससे पे्ररणा लेकर अन्य विद्वानों को साहित्यिक पत्रिकाओं के इतिहास लेखन में प्रवृत्त होना चाहिए।



डॉ. वीरेंद्र सिंह की मान्यता है कि विवेकी राय सृजन और विचार के ललित निबंधकार हैं। यही स्थिति हमें उनके उपन्यासों, कहानियों, शोधात्मक रचनाओं तथा ललित निबंधों में कमोबेश रूप से प्राप्त होती है। विवेकी राय एक ऐसी ‘संवेदना’ को भिन्न रूपों में व्यक्त किया है जिसमें जीवन यथार्थ की धकड़नें व्याप्त हैं। इस यथार्थ को ‘श्रम संस्कृति का यथार्थ’ कहा जा सकता है।



आधुनिक भारतीय ग्रामों के जन जीवन की गहराई और व्यापकता को विभिन्न आयामों में अभिव्यक्त करने में विवेकी राय को सफलता प्राप्त हुई है। मधुरेश का मत है कि विवेकी राय के साहित्य में किसान और दलित वर्ग की गहरी संवेदना एक साथ अंकित है। वे मानते हैं कि ‘‘विवेकी राय की कथा भूमि उस रूप में आंचलिक नहीं है, जैसे वह आंचलिकता के आंदोलन के दौर में दिखाई देती थी। उनके यहाँ आंचलिकता का
मतलब अपने सुपरिचित क्षेत्र से आत्मीयता और संवेदना के स्तर पर जुड़ा ही है। लोकतत्व और लोकभाषा के अप्रचलित रूपों के प्रति उत्साह जगाकर वे वस्तुतः इस अंचल को ही सजाने-सँवारने और उसे एक सुगढ़ व्यक्तित्व प्रदान करने की कोशिश करते हैं।’’(पृ.सं. 36)



इसी प्रकार डॉ. अजित कुमार का मानना है कि भोजपुरी साहित्य के सौंदर्यशास्त्र का प्रणयन कर विवेकी राय ने मानो ‘साइबर युग’ की मनोरचना को चुनौती दी है। भले ही ऐसे लोग हिंदी को दूधवालों और सब्जीवालों की भाषा मानते रहे हैं। वे याद दिलाते हैं कि ‘‘डॉ. विवेकी राय ने अपने फीचर संग्रह ‘राम झरोखा बइठि के’ में इतना गुदगुदाया है कि हम हँसते-हँसते रो पड़ें।’’ (पृ.सं. 77)



डॉ. सत्यकाम विवेकी राय की लेखकीय प्रतिभा को स्पष्ट करते हुए कहते हैं कि ‘‘अनजाने ही हम अपनी भाषा की अवहेलना कर रहे हैं, कुचल रहे हैं ; हिंदी प्रचार-प्रसार की बात करते हैं और खुद अमल नहीं करते। निश्चित रूप में आज हिंदी जन जीवन से जुड़ी होने के कारण खड़ी है, हम हिंदी की रोटियों पर पलनेवाले लोग तो उसका सत्यानाश करने पर तुले ही हुए हैं। पर जिसके पास जनशक्ति है उसका मुट्ठी भर
‘एलिट’ क्या बिगाड़ सकते हैं। जिस भाषा के पास विवेकी राय जी जैसे लेखक हो उस भाषा के अवरुद्ध और स्थिर होने का भी खतरा नहीं। लोकभाषा के रूप में नित्य नए प्रपात इससे मिल रहे हैं और इसका बल बढ़ा रहे हैं। विवेकी राय जी के लेखन का रस वस्तुतः लोक रस है जो उनके लेखन में ही नहीं, उनके व्यक्तित्व में भी झलकता है।’’ (पृ.सं. 142)



इसी प्रकार और भी अनेक विद्वानों ने इस कृति में विवेकी राय के बहुआयामी जीवन और साहित्य पर प्रकाश डाला है। इनमें डॉ. दिलीप भस्मे, डॉ. रामखेलावन राय, डॉ.गिरीश काशिद, डॉ. प्रमोद कुमार श्रीवास्तव ‘अनंग’, डॉ. रामचंद्र तिवारी, डॉ. अमरदीप सिंह, डॉ. नीलिमा शाह, डॉ. अंजना भुवेल, डॉ. जयनाथमणि त्रिपाठी, महाकवि श्रीकृष्णराय ‘हृदयेश’, डॉ. सविता मिश्र, एल.उमाशंकर सिंह, रामावतार, डॉ.
चंद्रशेखर तिवारी, रामजी राय, डॉ. श्रीप्रकाश शुक्ल, डॉ. विजय तनाजी शिंदे, अचल, डॉ. कुसुम राय, शेषनाथ राय और डॉ. शिवचंद प्रसाद सम्मिलित हैं।



इन सब विद्वानों ने अपने आलेखों में सबसे पहले तो इस बात पर बल दिया है कि डॉ. विवेकी राय का लेखन ग्राम संस्कृति और श्रम संस्कृति को समर्पित है और बड़ी ललक से अपने पाठक से सहज संबंध स्थापित करने में समर्थ है। इस बात की ओर भी ध्यान दिलाया गया है कि विवेकी राय ने साहित्यकार के मूल धर्म का सर्वत्र निर्वाह किया है। अर्थात् मूल्य चिंतन से वे कहीं विमुख नहीं हुए हैं। विवेकी राय
स्त्री विमर्श और दलित विमर्श की घोषणाएँ करते गली-गली और मंच-मंच नहीं घूमते, लेकिन वास्तविकता यह है कि समाज के इन दोनों ही वर्गों के शोषण और दमन से विवेकी राय भीतर तक विचलित होते हैं और एक साहित्यकार के रूप में इनके साथ अपनी पक्षधरता लेखन के माध्यम से प्रमाणित करते हैं। कहानी हो या उपन्यास, निबंध हो या समीक्षा, संस्मरण हो या पत्र - उनके लेखन में लोक जीवन और लोक भाषा अपनी
पूर्ण ठसक के साथ विद्यमान है।



कुल मिलाकर ‘विवेकी राय और उनका सृजन संसार’ यह प्रतिपादित करने में समर्थ पुस्तक है कि यदि भारत की आत्मा गाँवों में बसती है तो डॉ. विवेकी राय का व्यक्तित्व और कृतित्व यह बतलाता है कि भारत के गाँव उनकी आत्मा में बसते हैं।






विवेकी राय और उनका सृजन संसार@(सं.) डॉ. मान्धाता राय@विश्वविद्यालय प्रकाशन, चैक, वाराणसी-221 001@164 पृष्ठ (सजिल्द)@मूल्य 150 रु.

Sunday, December 20, 2009




सूरसागर और प्राकृत-अपभ्रंश का कृष्ण साहित्य


        इस पुस्तक में सूरदास के पहले की संस्कृतेत्तर कृष्ण काव्य परंपरा को पुनर्गठित और विवेचित किया गया है । पूर्व के अध्येताओं द्वारा हिन्दी कृष्ण साहित्य का सम्बन्ध संस्कृत के उपजीव्य ग्रंथों विशेषतः श्रीमद्भागवत, हरिवंश पुराण और ब्रह्म्वैवर्त की कथाओं के साथ जोड़ा जाता रहा है । किन्तु कृष्ण की लोक रंजक क्रीड़ाओं तथा लोक संस्कृति की पृष्ठभूमि पर अध्येता मौन रहे हैं। सूरसागर की इन लीलाओं की पॄष्ठभूमि के रूप में उसके ठीक पहले की प्राकृत-अपभ्रंश परंपरा का विस्तृत अध्ययन करके यथा संभव दोनों के सम-विषम तत्त्वों की छानबीन की गयी है । यह अध्ययन तुलनात्मक और समानान्तर दोनों है । पुस्तक के सम्बन्ध में डॉ शिवप्रसाद सिंह ने लिखा है ’हिन्दी में पहली बार संस्कृत और हिन्दी के बीच की प्राकृत-अपभ्रंश वाली श्रृंखला को पुनर्नियोजित करने का प्रयत्न इस पुस्तक में किया गया है जो लेखक की मौलिक देन है ।’
             प्राकृत-अपभ्रंश के कृष्ण साहित्य की कथायें प्रायः जैन प्रभावापन्न हैं । कथाओं में कुछ परिवर्तन के बावजूद उनमें कृष्ण की लोकलीला, लोकसंस्कृति और लोकतत्त्वों को निःसंकोच स्वीकार किया गया है । सूरदास ने कृष्ण कथा में संस्कृत में प्रचलित कथा के रूप में अनेक परिवर्तन किये हैं । उन्हें प्रस्तुत करने का लोकात्मक शिल्प उनका अपना है । इसकी पृष्ठ्भूमि प्राकृत अपभ्रंश के कृष्ण कथा काव्यों - गाथा सप्तशति, बज्जालग्ग, कण्ठ चरित, बसुदेव हिन्डी, रिट्ठणेमिचरित, महापुराण, हेमचन्द्र प्राकृत व्याकरण और प्राकृत पैंगलम् में मिलती है । इस पुस्तक में प्रेम, श्रृंगार, सौंदर्य, कृष्ण के व्यक्तित्व, लोक जीवन संबंधी लीलाओं से सम्बन्धित अंतर और साम्य को सोदाहरण प्रस्तुत कर अध्ययन को प्रामाणिक बनाया गया है ।
        सूरसागर के कथाभिप्राय और अपभ्रंश कथानक रुढियों, काव्यरूपों, भाषा, मुहावरे और लोकोक्तियों की दृष्टि से यह प्रभाव अधिक महत्वपूर्ण है । यही नहीं, सूरसागर की लोकसंस्कृति पर प्राकृत-अपभ्रंश कृष्ण काव्य की लोक संस्कृति जैसे पर्व, त्योहार, मान्यताओं, लोकाचार, मनोविनोद, खेल-कूद, व्यवसाय संबंधी वर्णनों का प्रभाव कुच अधिक ही दीखता है जिस पर सोदाहरण प्रकाश इस अध्ययन से पङा है । इस संबंध में यशस्वी आलोचक डॉ विजयेन्द्र स्नातक का कहना है ’लेखक ने दो विभिन्न भाषाओं के काव्यों में संग्रथित कृष्ण के स्वरूप के अनुसंधान सम्बन्धी कठिन एवं श्रमसाध्य कार्य को समीचीन शैली में सम्पन्न किया है । पुस्तक की भाषा प्रांजल एवं प्रवाह्पूर्ण है ।’

आकार डिमाई                           पृष्ट संख्या-296

प्रकाशक- श्री प्रकाशन,16 जौहरी टोला, इलाहाबाद
         ब्रांच- के 61/29 बुलानाला, वाराणासी
प्रकाशन वर्ष-1984,  मूल्य- 50/


Saturday, October 31, 2009

(सूरसागर में लोकतत्व )soorsaagar me loktatwa


सूरसागर में लोकतत्व


                     सूरसागर में लोकतत्व पुस्तक डॉ मान्धाता राय के डी. लिट उपाधि हेतु स्वीकृत शोध प्रबंध का संशोधित रूप है |हिंदी में  'लोकतत्व' के अर्थ में 'लोकवार्ता' का विश्लेषण किया गया है | अंग्रेजी साहित्य में फोकलोर (लोकवार्ता) से अलग फोक डांस , फोक सांग , फोक टेल , आदि का विशलेषण किया गया है | अनुसंधानकरता  ने तथ्यों के आधार पर हिंदी के पूर्व अध्येताओं के कथन से असहमति व्यक्त करते हुए लोकतत्व  के अवयय के रूप में लोकगान, लोककथा , लोकसंस्कृति, लोकनृत्य आदि का विवेचन किया है |

                      तत्कालीन इतिहास ग्रंथो  , वार्ता साहित्य, सूरदास पर हुए पूर्ववर्ती  अधययन तथा सम्बंधित अन्य ग्रंथो के विश्लेषण तथा सूरसागर के पदों से उनकी तुलना करके, यह निष्कर्ष निकला गया है की सूरसागर में प्रयुक्त लोकतत्व तत्कालीन सामाजिक स्थिति और पुष्टिमार्गीय सेवा पद्धति दोनों से लिए गए है | तीसरे अध्याय में सूरसागर के रचनाकाल पर अंतर्साक्ष्य और बाहिर्साक्ष्यो , का विश्लेषण करके निष्कर्ष निकला  गया है की सूरसागर के पदों की रचना सं 1567  में आरम्भ हुई  जो  सं 1587 तक पूर्ण हो गयी| इसको वल्लभाचार्य जी ने सागर की संज्ञा दी | किन्तु उसमे बाद की घटनाओं पर आधारित पद भी समिल्लित किये गए है | सूरदास के गोलोकवास के समय का अंतिम पद भी संकलित है | इस प्रकार पद  रचना का अंतिम काल सं 1620 से 1640 ठहरता है |

                           चौथा अध्याय सूरसागर में उपलब्ध वस्तुगत लोकतत्वो के विश्लेषण  से सम्बंधित है | इसके अन्तरगत प्रकृति ,  पशुपक्षी , लोकोपासना और लोकविश्वास , लोकमान्यता , लोकोत्सव, पर्व-त्यौहार, व्यवसाय और आजीविका, विविध संस्कार, वस्त्राभूषण एवं श्रृंगार , आवास एवं भोजन, मनोरंजन एवं खेल, और अनुशासन  या दंड से सम्बंधित लोकतत्वों को विस्तारपूर्वक उदाहरण सहित 110 पृष्ठों में विश्लेषित किया गया है | पाचवा अध्याय सूरसागर में पाए जाने वाले शिल्प सम्बन्धी लोकतत्वों के विश्लेषण से सम्बंधित है | इस अध्याय में सूरसागर में प्रयुक्त लोकगाथा, लोकगीत, लोककथा , लोकनाट्य, लोकाभिप्राय या कथानक रुढियां , काव्यरूप कथाविन्यास परिवेश चित्रण और लोक कलाओ, से सम्बंधित सूक्ष्म से सूक्ष्म तत्वों का सोदाहरण विश्लेषण 5o पृष्ठों में प्रस्तुत करके अध्ययन को प्रामाणिक और मौलिकता प्रदान की गयी है |

                           पुस्तक के छठें अध्याय में ’सूरसागर की भाषा में प्रयुक्त लोकतत्वों’ का विश्लेषण किया गया है. आचार्य शुक्ल ने सूरसागर को चलती हुई ब्रजभाषा में सबसे पहली रचना और उसकी भाषा को ब्रज भाषा की चलती बोली पर भी साहित्यिक भाषा कहा है | सूरदास ने अपनी भाषा को ब्रजभाषा न कहकर ’भाषा’ कहा है | सूरदास के अन्य अध्येताओं ने भी उनकी भाषा  को साहित्यिक ब्रजभाषा बताया है | डॉ शिवप्रसाद सिंह ने सूर के पूर्व की ब्रजभाषा की परम्परा को मौखिक नहीं लिखित सिद्ध किया है | प्रस्तुत अध्ययन में सूरसागर की भाषा में लोकतत्व के अर्न्तगत प्रभावशाली अभिव्यक्ति ले लिए भावानुकूल शब्दों का प्रयोग प्रसंगानुरूप शब्द योजना, तत्सम एवं अर्ध्तत्सम शब्दों का प्रयोग , तद्भव शब्द,  विदेशी शब्द, समय संबन्धी शब्द , मुद्रातौला व्यापार संबन्धी शब्द, शाशन व्यवस्था संबन्धी शब्द, ग्रामजीवन के शब्द ध्वनयात्मक शब्दों के विस्तृत उदाहरण सहित विशलेषण करने के साथ साथ सूरदास द्वारा प्रयुक्त  शब्द मैत्री अर्थ गौरव संगीतमयता या स्वर झंकार लोकमुहावरे, उक्तिवैचिंत्य लोकोक्तिया, लोक उपमान, लोकविशेषण और लोकप्रतीको का विस्तारपूर्वक उदाहरण सहित विशलेषण किया गया है | इसके अतिरिक्त उनकी भाषा में अनुप्रास तुको के आग्रह, कोमलकांत पदावली, पुनरुक्तिप्रकाश, पर्यायवाची एवं समानार्थी शब्दों, के प्रयोग का सोदाहरण विशलेषण लेखक ने किया है |

                        पूरी पुस्तक में सूरसागर के परंपरागत शास्त्रीय अध्ययन से हटकर लेखक ने सूरदास, लोकपात्रों , और ग्रन्थ की आत्मा के अनुरूप इसके लोकपक्ष का पहली बार विस्तृत और प्रामाणिक अध्ययन किया है | सूरसागर में उपलब्ध वस्तुगत शिल्पगत और भाषा संबन्धी लोकतत्वों का मूल उत्स ब्रज के आभीर समाज के रीति रिवाज़, विश्वास, रहन- सहन, प्रथा, नृत्यगीत लोकोक्ति, मुहावरों आदि में है | इसमे तत्कालीन सामंती एवं पृष्टि के प्रभाव से वस्त्राभूषण खानपान,. संगीत योजना जैसे तत्वों का समावेश, पुष्टिमार्गीय सेवापद्धाती के माध्यम से हुआ है | किन्तु यह प्रभाव लोकजीवन, के अनाभिजात साहित्य तत्वों के अनुरूप ढलकर समन्वय की भूमिका प्रस्तुत करता है | सूरदास ने कविता के शास्त्रीय सामंती मूल्यों से हटकर अनाभिजात साहित्य तत्वों (आम आदमी) का प्रयोग करके अपने गुरु वल्लभाचार्यजी के द्वारा प्रचलित वेद मर्यादा विरुद्ध पुष्टि मार्ग के सिद्धांतो को व्यावहारिक धरातल पर प्रस्तुत किया है | इस अध्ययन में इन्ही तत्वों का विश्लेषण हिंदी में पहली बार कलिया गया है |


प्रकाशक - विजय्प्रकाशन मंदिर सदिया वाराणसी
आकर डिमाई, मूल्य साजिल्ड २५०/पृष्ठ सं 270

Search This Blog

Followers